|
आज़ादी की अर्द्धशती
मत सोना पहरेदार।
खुले हैं आँगन, देहरी, द्वार।।बीते वर्ष
पचास, आस अब तक न हो सकी पूरी
जन-जन के अंतर्मन की अभिलाषा रही अधूरी
बदल गया माली
लेकिन है ज्यों की त्यों अनुहार।
खुले हैं आँगन, देहरी, द्वार।।
जिस मंज़िल के हित हम सब ने बाँधे थे मंसूबे
भटकी मंज़िल थके बटोही सपने हुए अजूबे
जमती गईं परत पर परतें
परतें अपरंपार।
खुले हैं आँगन, देहरी, द्वार।।
भाषा की जिस कश्ती पर हम समर लाद कर लाए
तट के पास कहीं उस तरणी को ही हम खो आए
अभी समय है शेष
उठा लो हाथों में पतवार।
खुले हैं आँगन, देहरी, द्वार।।
जोश-जोश में होश नहीं खो देना मेरे भाई
पाँव ज़मीं पर रहें अन्यथा होगी जगत हँसाई
खुशी-खुशी में गँवा न देना
जीने का अधिकार।
खुले हैं आँगन, देहरी, द्वार।।
डॉ. जगदीश व्योम
१ अगस्त २०१९ |