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जनतंत्र हमारा 
 जनतंत्र को समर्पित कविताओं का संकलन 

 
 
क्या सोचा था क्या पाया
 

क्या सोचा था क्या पाया है
रखना है, पर, ताने झंडा!

बिना किसी उचकुन के चूल्हा
बहुत धुआँता जलता जाता
तिसपर 'घर के मालिक हैं हम’
कह-कह आँगन रोज़ चिढ़ाता

कमरे-कमरे हाट लगा है
बना तराज़ू घर का डंडा!

क्या सोचा था क्या पाया है
रखना है, पर, ताने झंडा!

ऐसे में अब बड़का भइया
मन की बात करें चुन-चुन कर
'रुआ-मिठाई’बाँट रहे हैं
ससुराली कनफुसकी सुनकर

'अनुज-भतीजो, बाँह उठाओ’
'अच्छे दिन’के बाँधो गंडा!

क्या सोचा था क्या पाया है
रखना है, पर, ताने झंडा!

तब घुस आये थे बनमानुस
खुफ़िया बन्दर उन्हें हकाला
लेकिन सीलन अभी बहुत है
कोने-कोने मकड़ी-जाला

पैठे गोजर-साँप-छुछुंदर
ये क्या चाहें?.. मौसम ठंडा!

क्या सोचा था क्या पाया है
रखना है, पर, ताने झंडा!

- सौरभ
१० अगस्त २०१५


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