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आ गया अंधी सुरंगों से निकलकर
देश अब जनतंत्र को सहला रहा है
जल रहे जनतंत्र की
ज्वाला प्रबल हो
किस अराजक मोड़ पर
ठहरी हुई है
और आदमकद हुए
षड़यंत्र बढ़कर
छल-प्रपंचों की पहुँच
गहरी हुई है
एकतरफा घोषणाओं का चलन अब
फिर किसी प्राचीर से बहला रहा है
राजपथ की झाँकियों में
सज रहा है
एक विकसित राष्ट्र का
वैभव प्रदर्शन
और संसद से सड़क तक
हो रहा है
संविधानिक शपथ का
निर्लज्ज नर्तन
आदमी मतदान की बनकर इकाई
राज-सत्ता का जनक कहला रहा है
अर्थ संप्रभुता के
सरल स्वाधीनता के
स्वार्थ की स्वच्छंदता में
ढल रहे हैं
निर्भया भयमुक्त है कब
इस नगर में
सड़क के संकेत भय में
जल रहे हैं
आँकड़ों में जो सजाकर रख दिया वह
तथ्य सारे सत्य को झुठला रहा है
जो कभी आदर्श के
मानक रहे थे
उन शहीदों को भुलाया
जा रहा है
फिर नए इतिहास के
संशोधनों से
तमस को निश-दिन सजाया
जा रहा है
राष्ट्रवादी सोच का एकांग चेहरा
देश के सीमान्त पर दहला रहा है
अब ठहरकर
सोचने का भी समय है
किस तरह इस देश की
गरिमा बचाएँ
नोचने में जो लगे हैं
हर तरह से
उन सगों के
गुप्त चेहरों को दिखाएँ
त्याग का, बलिदान का, नकली मुखौटा
राष्ट्र का विश्वास कैसे पा रहा है
- जगदीश पंकज
१० अगस्त २०१५
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