हुई तपेदिक आज देश को
मगर डॉक्टर कोई नहीं
श्वासें टँगी हुई सूली पर
फिर भी जनता खोई नहीं
सबसे ज़्यादा हाथों वाला
देश मगर बेगारी है
सौ करोड़ आँखों वाली माँ
आज बनी बेचारी है
अच्छे दिन की आस में धरती
देखो अब तक सोई नहीं
सुरसा महँगाई की मुँह को
फाड़े जेबें तकती है
लेकिन चेहरों पर खाली
पैसों की लटकी तख्ती है
संसद की गलियाँ अब तक भी
साथ हमारे रोई नहीं
अभी कहाँ वो सुबहा आयी
जो बचपन को सपने दे
बूढ़े बरगद बड़े अकेले
अब तो उनको अपने दे
आशा की लकुटी ने देखो
पीर अभी तक ढोई नहीं.
- गीता पंडित
१० अगस्त २०१५
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