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जनतंत्र हमारा 
 जनतंत्र को समर्पित कविताओं का संकलन 

 
 
देश है नवीन
 

देश है नवीन किन्तु, राष्ट्र है सनातनी ये,
मान्यता व संस्कार की लिये निशानियाँ
था समस्त लोक-विश्व क्लिष्ट तम के पाश में,
भारती सुना रही थी नीति की कहानियाँ
संतति प्रबुद्ध मुग्ध थी सुविज्ञ सौम्य उच्च,
बाँचती थी धर्म-शास्त्र को सदा जुबानियाँ
स्वीकार्यता चरित्र में, प्रभाव में उदारता,
शांत मंद गीत में सदैव थीं रवानियाँ

खिड़कियाँ खुली रखीं, खुले रखे थे द्वार भी,
शांति-ज्ञान-भक्ति का सुदीप भी जला रहा
किन्तु आँधियाँ चलीं कि राख-धूल भर गयी,
राक्षसी प्रहार झेलने का मामला रहा
हत रहा था भाग्य किन्तु चेतना जगी रही,
भारती का रूप दिव्य शस्य-श्यामला रहा
सहस्र वर्ष ग्लानि की अमावसें हुई विदा,
स्वतंत्र सूर्य शक्ति का व्यापना भला रहा

नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा,
वो श्रेष्ठ भी दिखे भले, परन्तु लोक-छात्र हो
तंत्र की कमान जन-जनार्दनों के हाथ हो,
त्याग दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो
भूमि-जन-संविधान, बिन्दु हैं ये देशमान,
संप्रभू विचार में न ह्रास लेश मात्र हो
किन्तु सत्य है यही सुधार हो सतत यहाँ,
ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो

- सौरभ पांडेय
१७ अगस्त २०१५


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