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जनतंत्र
हमारा
जनतंत्र
को समर्पित कविताओं का संकलन
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हमारा जनतंत्र
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पापों की पगडंडियाँ, बना रहे वे राह।
विश्वासों की आड़ में, नारी रही कराह।
सत्ता ही जनतंत्र में, करती केवल मौज।
बना योजना कागजी, भरे तिजोरी रोज।
शोषण पोषित हो रहा, है समाज भ्रयमान।
घोटालों की बाढ़ में, डूबा हिन्दूस्तान।
घर में ही जनतंत्र के, मची खूब है लूट।
कुर्सी पाने के लिये, पड़ी आपसी फूट।
सेंध मारने देश में, घूम रहे गद्दार।
ओढ़े चादर दोगली, निभा रहे किरदार।
- मंजु गुप्ता
१७ अगस्त २०१५ |
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