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जनतंत्र हमारा 
 जनतंत्र को समर्पित कविताओं का संकलन 

 
 
भ्रष्ट हो सारी व्यवस्था
 

गीत मेरे अब कोई गाता नहीं।
सत्य है कड़ुआ तभी भाता नहीं।

रक्त से क्यों रँग दिया आँचल मेरा,
क्यों तिरंगा तुमको है भाता नहीं?

इतनी दीवारें हैं खिंचती जा रही,
अब तो आँगन ही नज़र आता नहीं।

आग और तूफ़ान चारों ओर क्यों,
हाथ किसका है, नज़र आता नहीं।

बाढ़, सूखा दण्ड छोटे ही मिले,
'पेड़ का काटा' तो बच पाता नहीं।

मैंने चौराहे पे रक्खा है दिया,
लैम्प कोई राह दिखलाता नहीं।

भ्रष्ट हो सारी व्यवस्था जब कहीं,
तब तो भ्रष्टाचार दिख पाता नहीं।

बाहरी दुश्मन बनाते दोस्त हम,
भीतरी कोई पकड़ पाता नहीं।

'तंत्र' भी अब तो 'नया' ख़तरे में है,
काम संसद में भी चल पाता नहीं।

वी.सी.राय नया 
१७ अगस्त २०१५


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