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जनतंत्र हमारा 
 जनतंत्र को समर्पित कविताओं का संकलन 

 
 
देश है आजाद
 

देश है आज़ाद सारे लोग कहते रह गए
ख्वाब रोटी के मगर अपने बिखरते रह गए

वो हमारे वोट की सीढ़ी से पहुँचे चाँद पर
और हम उनकी तसल्ली पर फिसलते रह गए

राहबर है कौन अपना, राहजन किसको कहें
फर्क इनके बीच क्या है हम समझते रह गए

अब तो आएंगे भले दिन बस इसी उम्मीद पर
दर्द अपने प्यास अपनी भूख सहते रह गए

झूमकर बरसे बहुत बादल हमारे नाम के
बूँदभर पानी को लेकिन हम तरसते रह गए

- शंभु शरण मंडल
१७ अगस्त २०१५


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