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फ़ना हुईं गुलामियाँ, ये ऋतु स्वतन्त्रता की है।
अमन की बात बोलिए, प्रभात, वंदना की है।
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लपेट लोभ, छल-कपट, बिछी हुई हैं गोटियाँ
विजित न जीत हो कि ये, बिसात, दासता की है।
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मिटे जो देश के लिए, शहीद, उनकी याद में
जलाएँ एक दीप फिर, ये रात प्रार्थना की है।
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करें न अंध-अनुकरण, विदेशी रीति-नीति का
स्वदेश की पुकार ये, गुहार माँ धरा की है।
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भुलाके द्वेष-क्लेश सब, करें नमन निशान को
कि बात याद हो सदा, ये भू परम्परा की है।
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सदय बनें, सुदृढ़ बनें, हृदय उतार लें चलो
हवाओं में घुली हुई, जो सीख हर ऋचा की है।
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ढले कभी न भानु अब, सुराज, सौख्य, सत्य का
सुयोग से मिली हमें, हयात, ज्योत्सना की है
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रहें न वे अपूर्ण अब, स्वतंत्र राजतंत्र में
जो ख्वाब हर सपूत के, जो आस हर सुता की है
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रुकें न पग प्रयास के, झुके न अब ध्वजा कभी
बनी रहे स्वतन्त्रता, ये चाह ‘कल्पना’की है
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- कल्पना रामानी
१७ अगस्त २०१५
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