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वक्त को कुछ और, थोड़ी सी हरारत चाहिए
अब ये लाज़िम है कि हर शै को शरारत चाहिए
आईने में देखकर चेहरा, वो शर्माने लगे
जैसे शीशे पर उन्हें, कोई इबारत चाहिए
आज जिस्मो-जान, तहजीब-ओ-तमद्दुन बिक रहे
और मेरे दौर को, कैसी तिजारत चाहिए
हिल गयी दीवार, औ' बुनियाद भी हिलने लगी
टिक सके तूफान में, ऐसी इमारत चाहिए
लोग फिरते हैं, नकाबों को यहाँ पहने हुए
कर सके जो बेहिजाबी, वो महारत चाहिए
आप करते हैं हिकारत, आदमी से किसलिए
जबकि अपनी ही हिकारत से, हिकारत चाहिए
हम बहस करते रहे 'पंकज' जहाँ चलता रहा
तय करो अहले-वतन किस ढँग का भारत चाहिए
- जगदीश पंकज
१७ अगस्त २०१५
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