|
कल रात
बहुत देर तक रोता रहा
लाल किला
जब, मैं उसे प्रणाम करने गया।
उसने मुझे रोक दिया
'न' की मुद्रा में
उसका बूढ़ा सिर
न जाने कितनी बार हिला
मैंने देखा-
वह बहुत कमज़ोर हो गया है
उसकी सुदृढ़ दीवारें
दरक गई थीं
और
परकोटे, दालान में
अपनी श्रेष्ठता के सवाल पे
झगड़ रहे थे।
वहीं, एक ओर पड़े थे
जफर, मंगल, सुभाष और गांधी के
खून से लथपथ शरीर
जिन्हें-
मेरे सामने रौंदतीं
कई जोड़ा काली आकृतियाँ
बुर्ज पर इठलाते
तिरंगे की ओर लपकीं
और/उसके रंग
आपस में बांट लिए।
मैं, लौट पड़ा
उसने कतई नहीं रोका
बस, सुबकता रहा
मेरे ओझल होने तक..!
--सुबोध श्रीवास्तव
१२ अगस्त २०१३
|