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पंछी जागे, गाएँ प्रभाती
झूले पवन-हिंडोले
छुगनी पर पंछी मन मेरा
डोले हौले-हौले
धीरे- धीरे मन के द्वारे
आ पहुँची है भोर नई
धरती के आँचल में बिखरे
सुरधनु वाले रंग कई
पूरब की सोने-सी भाषा
संतों-सा सूरज बोले
कोमल-कोमल एहसासों के
पेंगें भरते छौने
गतिरोधों के गजराजों के
क़द लगते हैं बौने
जर-जर संकल्पों के मुखडे़
फिर से उजले-धौले
अँधियाए मौसम की बीती
रजनी वाली यादें
अँखुआई है भोले मन की
भोली- भाली साधें
चिड़िया के नन्हें- सा सपना
रह- रह कर मुँह खोले
कितनी राह तकी, अब आए
मनचाहे पल अपने
गत अनुभव शंकित है, शायद
पूरे होंगे सपने
क्षितिजों के मालिक युग- युग से
देते आए झोले
-शशिकांत गीते
१२ अगस्त २०१३
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