सरहद पर तैनात
बन्दूक और बूटों में
दबे हैं जज़्बात
रिश्तों का रेशा रेशा
रख दिया बारूद के भीतर
वतनपरस्ती ने
कैसा है ये अवाम से इश्क ?
जिसने मोहब्बत का तर्जुमा
लहू से लिख दिया है
नफ़रत के पन्ने पर
तुम्हे क्या पता ?
कितना सूख गया है
आँगन का नीम
तुम्हारी फिक्र में
कितनी झुक गयी है देहरी
तुम्हारे हक़ में
दुआएँ माँग कर
कितना बेताब है
नल का हत्था
तुम्हारी खैरियत की खबर सुनने को
और किस तरह बैठ जाती है दीवारें
थाम कर कलेजा
फोन की एक घंटी पर
काश जान पाते अगर ये सब ...
तो ...तोड़ देते
ज़मीनी नाप-जोख के सभी पैमाने
और ...
तय करते प्यार के कदमों से
अमन की ऊँचाई
आसमान तक
मिटा कर
समूची धरती की
हर एक सरहद !!
-संध्या सिंह
१२ अगस्त २०१३
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