जाने कैसे हाथों में
ये देश–रसोई है
दूध चढ़ाकर चूल्हे पर
गुनवंती सोई है
भूखी जनता बाहर
राह निरखती रहती है
भीतर जाने क्या–क्या
खिचड़ी पकती रहती है
परस गया थाली में फिर
आश्वासन कोई है
पकें पुलाव ख़याली
सपनों में देशी घी है
मुखरित होते प्रश्नों का
उत्तर बस चुप्पी है
आज़ादी ने अब तक केवल
पीर सँजोई है
हमें पता है षड्यन्त्रों में
शामिल कौन रहा
नदी लुट गयी मगर
हिमालय पर्वत मौन रहा
राजनीति ने लोकतंत्र की
नाव डुबोई है
– रविशंकर मिश्र रवि
१२ अगस्त २०१३
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