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उम्मीदें थीं
आजादी खुशहाली लायेगी।
रखा सूद पर
जुआ और हल तक बैलों का
बस खुदकुशियाँ ही हल हैं ठण्डे चूल्हों का
तय तो था खलिहानों की
बदहाली जायेगी।
नींव टिकी
सरकारों की दंगों, बलवों पर
लोकतंत्र है पूँजीपतियों के तलवों पर
सोचा तो था सोच गुलामों
वाली
जायेगी।
स्वार्थ–बुझे
पासे फिंकते कब से चौसर पर
नग्न–क्षुधित जनतंत्र हारता हर अवसर पर
राजभवन से कब यह नीति–
कुचाली जायेगी।
हल्की
ममता हुई सियासत के हलके में
सरहद से माँ को मिलते हैं धड़ तोहफ़े में
इल्म न था इस तरह लहू की
लाली जायेगी।
–कृष्ण नन्दन मौर्य
१२ अगस्त २०१३
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