है कहां निद्रित अलस से
स्वप्न लोचन जाग रे !
प्रगति प्राची से पुकारे
भारती उठ जाग रे !
मलय चन्दन सुरभि नासा
नित नया उत्साह लाती
अरूणिमा हिम चोटियों से
पुष्प जीवन के खिलाती
कोटिश: पग मग बढ़े हैं
रंग विविध ले हाथ रे !
भारती उठ जाग रे !
ज्ञान की पावन पुनीता
पुण्य सलिला बह रही
आदि से अध्यात्म गंगा
सुन तुझे क्या कह रही
विश्व है कौटुम्ब जिसका
चरण रज ले माथ रे!
भारती उठ जाग रे !
नदी निर्झर वन सुमन सब
वाट तेरी जोहते
ध्वनित कलकल नीर चँचल
मृगेन्द्रित मन मोहते !
कोटिश: कर साथ तेरे
अनृत झुलसा आग रे !
भारती उठ जाग रे !
युग भारती फिर जाग रे !
जाग रे ! .. फिर जाग रे !
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
१३ अगस्त २०१२
|