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आ गया अब के बरस फिर यह दिवस स्वाधीनता का
और फिर उस पर मुलम्मा हम चढ़ाते जा रहे हैं
नाम जो पर्याय थे स्वाधीनता का, खो गये हैं
युग युगों के स्वर्णमय इतिहास धूमिल हो गये हैं
ज़िन्दगी को बस उढ़ा विच्छिन्नता आश्वासनों की
स्वार्थ के इक वृत्त में घिर अजनबी सब हो गये हैं
पंथ के निर्देशकों के पथ स्वयं ही आज भटके
डाल कर सम्मोहिनी सी करतबों की एक नट के
ढूँढती आतुर निगाहें आ सके विक्रम कहीं से
हर गली में पीपलों पर अनगिनत वेताल लटके
ठीकरे हैं चन्द जिन पर पोत कर सिन्दूर फ़िर फ़िर
आस्थाओं के सुमन निशि दिन चढ़ाते जा रहे हैं
उत्तरों की कर प्रतीक्षा प्रश्न ने दम तोड़ डाला
स्वर्णवर्णी स्वप्न फ़िर है वही परिणाम काला
वायदों के शब्द अंबर में टँगे बन कर सितारे
चाँद का साया नहीं पाया, गगन कितना खंगाला
शुष्क आँखों में न कण भी अश्रुओं का एक बाकी
शून्य के साम्राज्य में हर कामना है छटपटाती
व्योम की हर वीथि का अवरोध गिद्धों ने किया है
एक गौरैया सहज सी आस की भी उड़ न पाती
फ़र्क क्या पड़ता किसी को , हो खरा, खोटा भले हो
माँग सिक्के की, जिसे हम सब चलाते जा रहे हैं
नीम की शाखाओं पर आ धूप तिनके चुन रही है
बाँसुरी शहनाईयों की मौन सरगम सुन रही है
बादलों के चंद टुकड़ों की कुटिल आवारगी के
साथ मिल षड़यंत्र, झालर अब हवा की बुन रही है
फूल के संदेश माली कैद कर रखने लगा है
योजना के चित्र पर फिर से सपन उगने लगा है
मच रहे हड़कंप में बाजी उसी के हाथ लगती
जो दिये को नाग के फन पर यहाँ रखने लगा है
पाँच दीपक चिह्न पर हीरक जयन्ती के जलाकर
हम असंभव को पुन: संभव बनाते जा रहे हैं
राकेश खंडेलवाल
१३ अगस्त २०१२
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