देशहित पैदा हुए हैं देश पर मर जाएँगे।
मरते–मरते देश को जिंदा मगर कर जाएँगे।
हमको पीसेगा फलक चक्की में अपनी कब तलक‚
खाक बन कर आँख में उसकी बसर कर जाएँगे।
कर रही बर्गे–खिजाँ को बादे–सरसर दूर क्यों‚
पेशवा–ए–फस्ले गुल हैं खुद समर कर जाएँगे।
खाक में हमको मिलाने का तमाशा देखना‚
तुख्म–रेजी से नए पैदा शजर कर जाएँगे।
नौ नौ आंसू जो रूलाते हैं हमें उनके लिए‚
अश्क के सैलाब से बरपा हसर कर जाएँगे।
गर्दिशे–गिरदाब में डूबे तो कुछ परवा नहीं‚
बहरे–हस्ती में नई पैदा लहर कर जाएँगे।
क्या कुचलते हैं समझकर वो हमें बर्गे–हिना‚
अपने खूँ से हाथ उनके तर–बतर कर जाएँगे।
नक्शे–पा से क्या मिटाता तू हमें पीरे फलक‚
रहबरी का काम देंगे जो गुजर कर जाएँगे।
--कुंवर प्रताप चन्द्र 'आजाद'
१३ अगस्त २०१२
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