मेरे बचपन में सर पे मेरे
एक मोहब्बत भरा हाथ था
मिसल साये के कड़ी धूप में
और अंधेरों में जो हाथ थामें मेरा
हर घड़ी साथ था
भाग जाए मेरी नींद जब ख़ौफ़ से
अपने कमरे में तन्हा मुझे डर लगे
एक आवाज़ जिस पे यकीं था मुझे
मुझसे चुपके से कहती थी
डरना नहीं।
देखो मैं पास हूँ
ऐसा लहज़ा था
लोरी की मानिंद आँखों में घुल जाता था
और बुद्ध को निर्वाण मिल जाता था
आज जब मैं परेशान हूँ
कितनी रातों का जागा हुआ
मेरी आँखें भी पथराई हैं
जिस्म भी दर्द से चूर है
ज़हन सोचों से माज़ूर है
दिल ज़्यादा ही रंजूर है
और वो हाथ मुझसे बहुत दूर है
मुंतज़िर हूँ कि माथे पे मेरे कोई
इक हथेली धरे
और धीमे से लहजे में मुझसे कहे
ऐसे घबराओ मत
देखो मैं साथ हूँ
गोकि अब ऐसी बातों पे शायद मैं
यक़ीन ना करूँ
पर बहल जाऊँगा
और सो जाऊँगा!
- डॉ. अब्दुल्लाह
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