माँ हमारी सदानीरा नदी जैसी
महक है वह
फूल वन की
सघन मीठी छाँव जैसी
घने कोहरे में
सुनहरी रोशनी के
ठाँव जैसी
नेह का अमरित पिलाती
माँ हमारी है गंभीरा नदी जैसी
सुबह मिलती
धूप बन कर
शाम कोमल छाँव हो कर
रात भर
रहती अकेली
वह अंधेरों के तटों पर
और रहती सदा हँसती
माँ हमारी महाधीरा नदी जैसी
एक मंदिर
ढाई आखर का
उसी की आरती वह
रोज़ नहला
नेहजल से
हम सभी को तारती वह
हर तरफ़ विस्तार उसका
माँ हमारी सिंधुतीरा नदी जैसी
- कुमार रवींद्र
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