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आदि से अंत तक
शून्य से ब्रह्म तक
ज़िन्दगी के प्रथम स्वप्न से हो
शुरू
आस की डोर में
सांझ में भोर में
तुम ही मेरी सखा, तुम ही मेरी
गुरू
तुम ही आराध्य हो
तुम सहज साध्य हो
प्रेरणा धड़कनों के सफ़र की
तुम्हीं
पथ संभाव्य में
मन के हर काव्य में
एक संकल्प लेकर बसी हो तुम्हीं
दर्द की तुम दवा
पूर्व की तुम हवा
चिलबिलाती हुई धूप छांह हो
सृष्टि आरंभ तुमसे
तुम्हीं पर ख़तम
बस तुम्हारा ही विस्तार सातों
गगन
एक तुम आरुणी
एक तुम वारुणी
एक तुम ही हवा एक तुम ही अगन
सृष्टि की तुम सृजक
प्यास को तुम चषक
मेरे अस्तित्व का तुम ही आधार हो
बिन तुम्हारे कभी
चंद्रमा न रवि
है अकल्पित कहीं कोई संसार हो
हर घड़ी, एक क्षण
एक विस्तार, तृण
जो भी है पास में तुमने हमको दिया
किंतु हम भूलते
दंभ में झूलते
साल में एक दिन याद तुमको किया
कैसी है ये सदी
कैसी है त्रासदी
भूल जाते हैं कारण हमारा है जो
हैं ऋणी अंत तक
प्राण के पंथ पर
सांस हर एक माता तुम्हारी ही हो
- राकेश खंडेलवाल |