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नौ राते कुछ अलग मनाओ

 

 

 

चकाचौंध पंडालों की
इस बरस त्याग कर
नमो नमो माँ अम्बे अब की
नौ राते कुछ अलग मनाओ

उस खोरी को चलो
जहाँ सीला है क्षण क्षण
सीली सीली आँखें हैं
सीले से दर्पण
अँधियारा है गगन जहाँ
धरती अँधियारी
मंडराते आभाव जहाँ
पर पारी पारी

निरंकार है जोत तुम्हारी
यदि सच में माँ
अँधियारी खुशियों में भी
कुछ रोज़ बिताओ

जहाँ पतीली में पकती हैं
सिर्फ करछियाँ
साँस साँस पर नाच रहीं हैं
जहाँ पसलियाँ
स्वप्न जहाँ पर खुद ही खुद से
ऊब चुके हैं
आँखों के काले घेरों में
डूब चुके हैं

दुखहरनी,सुखकरनी हो तुम
यदि सच में माँ
इन गलियों में हुनर ज़रा
अपना दिखलाओ

क्यों बेटी जीवन से पहले
मर जाती है
क्यों सड़कों की आँखों से वो
घबराती है
जयकारों का मोह त्याग
पहचानो सच को
स्वीकारो स्वांगों के
बहुरंगी लालच को

असुरमर्दिनी, विजया हो तुम
यदि सच में माँ
शातिर परम्पराओं में
जी कर बतलाओ

‪- सीमा‬ अग्रवाल 
१५ अक्तूबर २०१५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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