बाल आती हो सृजन के दीप तम
के द्वार पर
माँ! तुम्हीं से ज्योतिमय है
चेतना संसार की।
क्रोड़ में नव-अंकुरण के अवयवों को ओड़ कर
बाँधती रहती सृजन के सेतु जगती-धार पर
वेदना का मूर्त उद्भव फिर तुम्हें कैसे कहूँ?
दीप्त हैं संजीवनी मुस्कान से दोनों अधर!
तुम न देही, तुम न रचना, तुम सनातन भावना
धमनियों में माँ! तुम्हीं कारण
सदा झंकार की।
तुम सदा ही वीर-मुद्रा में सजग जीवन लिये
नित क्षरण के अट्टहासों में रही हो अनमनी
शत नमन है माँ तुम्हारे जीवनी के गान पर
नित मरण की आँख में तुम आँख डाले दृढ़ बनी
ले सुधा-सागर हृदय में दिख रही निर्द्वंद्व तुम
साधना हो गीत की, अनुभूति
हो उद्गार की
श्रोत सबका ब्रह्म, अक्षय है, मगर किस काम का?
यदि न जीवन-तत्त्व मुखरित हो सका आकार में!
ब्रह्म की संचेतना निष्प्रभ अवश निरुपाय है
यदि न संबल शक्ति का उसको मिले व्यवहार में!
माँ तभी तो चेतना अंतःकरण में रोपती
ताकि हम भी जी सकें संवेदना
आकार की
- सौरभ पाण्डेय
१५ अक्तूबर २०१५ |