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माँ

 

 

 

खाने से पहले
देवों को भोग लगाती माँ
काग-ग्रास देकर गृहिणी का
धर्म बचाती माँ

कौर-कौर देकर कुत्तों को
रोज़ खिलाएगी
दुर्बल को देगी
जाबर को दूर भगाएगी

गर्भवती कुतिया पर ज्यादा
नेह लुटाती माँ

पिछले पाँव पूजकर उसने
परदखिना कीनी
गैया की रोटी में रखती
थोड़ा गुड़-चीनी

रखती नहीं नांद में
अपने हाथ खिलाती माँ

स्वर सुन पड़े कहीं मंगते का
भरे घाम में भी
उसको देगी
भले व्यस्त हो
घने काम में भी

मुस्टंडे बाबा के आने से
खिझ जाती माँ

मंगता भला-बुरा भी हो,
ना कहना नहीं रुचा
वो गृहस्थ का हर पल रखती
पालक-धर्म बचा

वो रहीम का दोहा फिर
हर बार सुनाती माँ

- पंकज परिमल
१५ अक्तूबर २०१५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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