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मंदिर में सपना

 

 

 

मैं था तेरे मंदिर में
कल ये सपना आया माता

नत हो तुझको शीश नवाया
श्रद्धा से भर दीप जलाया
अंदर कोई हँसा उसी क्षण
कौन! यही मैं समझ न पाया

निकट तुम्हारे होकर भी
मैं थोड़ा घबराया माता

तंज कसा निज आत्मा ने या
चोर छिपा कोई अंतस में
कई कर्म भी ऐसे हैं जो
छूटे अबतक बस आलस में

मंथन होने लगा यही
भटका मन भरमाया माता

इतनी दया दिखाना मुझपर
दूर न खुद से जाने देना
जो हो लेकिन मेरे अंदर
महिषासुर मत आने देना

जीना चाहूँ मैं जीवन
बनके तेरी छाया माता

- कुमार गौरव अजीतेन्दु
१५ अक्तूबर २०१५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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