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माँ आदि अनंत

 

 

 
माँ
तुम हो आदि अनंता
शक्ति रूप भगवंता
ब्रह्म रूपा
जगत जननी
यशोदा बन
खिलाती कान्हा
कौशल्या बन दुलारती
हर घर में बसती
अहसास बन
हर दिल हर श्वास में
बन उतरती माँ पूरी संसृति बन।

माँ
तुम पालन हारी
रिपु दलन कारणी बन
मन्दिर में सज जाती
मूर्ति बन
शंख और घंटियों में
बजती आरती बन
ममत्व बाँचती
कल्पना को मूर्त करती
बाल गोपाल बन।

माँ तुम
राग रागनी में ढलती
गीत गोविंद गाती
भजन बनती
शांत निर्विघ्न
धूर्म वर्तिका सी बन
आशीर्वचनों सी माँ
अपने बच्चों के लिए
भक्तों के लिए
तुम उतरती मन मंदिर में
माँ, पूरा आकाश बन।

- मंजुल भटनागर
१५ अक्तूबर २०१५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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