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आँचल संदली
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जब भी देखा आँचल संदली
मंदिर देहरी ज्योत जली
मन की आँखों से माँ तेरी
अश्रु बन इक याद ढली।
माँ रंगती थी चुनरी अपनी
जैसा मन का मौसम था
कभी गुलाबी, कभी काश्नी
पीत वासन्ती तन मन था
रँग घुलते थे पूछ के उसको
हर रँग में वो लगी भली।
ठाकुर द्वारे कृष्ण कन्हैया
फूलों से थे सदा सजे
संध्या-वन्दन, दीप-आरती
माँ मीरा के गीत भजे
चित्रित करती माँ रंगोली
सज जाते थे द्वार गली।
सतरंगी धागों की डोरी
माँ रिश्तों की माल पिरोए
फीका हो न रंग प्रेम का
डोरी बारम्बार भिगोए
ममता करुणा की रोली से
माँ हम सब को बाँध चली।
त्याग दया की पावन गंगा
माँ के अँगना बहती थी
माँ तो अपने सारे सुख दुःख
रंगों में ही कहती थी
तेरे मन की मैं ही जानूँ
मैं जो तेरी गोद पली।
- शशि पाधा
२९ सितंबर २०१४ |
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