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माँ मेरी अब जगह जगह पर,
महिषासुर से जूझ रही।
समय चक्र के साथ शक्तियाँ
क्षीण हुईं सब माता की
असुरों की दिन-दिन बढती हैं
ये करतूत विधाता कीं।
चण्ड-मुण्ड से लड़ कर माता,
मुझे बिलखती सूझ रही।
रक्तबीज जैसे असुरों का
बीज जहाँ में फैला है
माँ से ही वो पैदा होकर
करता आँचल मैला है।
छली गयी फिर आज यहाँ माँ
दुनिया झूठी पूज रही।
मधु-कैटभ की है कटकाई
विकट भयंकर रूप बना
ममता को कोने में रख, कर
दुष्टों का संहार घना।
नारी क्यों बस नेह की मूरत,
यही बात अनबूझ रही।
- पवन प्रताप सिंह 'पवन'
२९ सितंबर २०१४ |