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काश ! कि माँ सबसे बतियातीं

 

 

 
भरवाँ शिमला-मिर्च बनी है
कल दूजे व्यंजन की बारी
काश ! कि माँ थोडा चख पातीं

अपनी-अपनी रूचि में डूबे
रहे उपेक्षित स्वाद तुम्हारे
तुम्हें रहा परहेज़ उम्र-भर
हठ कर लहसुन-प्याज बघारे
याद कर रहे बिसरी बातें
इक-इक गुण का चर्चा जारी
काश ! कि माँ थोडा सुन पातीं

कुछ विडम्बना नौकरियों की
अर्थ-द्वंद्व या मन की भटकन
बच्चों की मासिक-साप्ताहिक
रही परीक्षाओं की अड़चन
काम-काज से मिली न फुरसत
आज भरी है घर की द्वारी
काश ! कि माँ थोडा रुक पातीं

गिनती के प्राणी जिस घर में
आज वही घर है जन-संकुल
जिनसे थे सम्बन्ध, न भी थे -
सभी दिख रहे हैं शोकाकुल
दूर-दूर से आए पाहून
आज जुड़ी सब नातेदारी
काश ! कि माँ सबसे बतियातीं

तुमसे जो बोले थे कर्कश
उनके भी स्वर भीगे-कातर
मूर्तिमान गीता के प्रवचन
सभी सान्त्वना देते आकर
धीरजवान पिता हैं कितने
आज लिए बैठे मन भारी
काश ! कि माँ उनको समझातीं

- पंकज परिमल
२९ सितंबर २०१४

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