गाँवों की पगडंडी जैसे
टेढ़े अक्षर डोल रहे हैं
अम्मा की ही है यह चिट्ठी
एक-एक कर बोल रहे हैं
अड़तालीस घंटे से छोटी
अब तो कोई रात नहीं है
पर आगे लिखती है अम्मा
घबराने की बात नहीं है
दीया-बत्ती माचिस सब है
बस थोड़ा सा तेल नहीं है
मुखिया जी कहते इस जुग में
दिया जलाना खेल नहीं है
गाँव-देश का हाल लिखूँ क्या
ऐसा तो कुछ खास नहीं है
चारो ओर खिली है सरसों
पर जाने क्यों वास नहीं है।
केवल धड़कन ही गायब है
बाकी सारा गाँव वही है
नोन-तेल सब कुछ महँगा है
इंसानों का भाव वही है
रिश्तों की गर्माहट गायब
जलता हुआ अलाव वही है
शीतलता ही नहीं मिलेगी
आम-नीम की छाँव वही है
टूट गया पुल गंगा जी का
लेकिन अभी बहाव वही है
मल्लाहा तो बदल गया पर
छेदों वाली नाव वही है
बेटा सुना शहर में तेरे
मारकाट का दौर चल रहा
कैसे लिखूँ यहाँ आ जाओ
उसी आग में गाँव जल रहा
कर्फ्यू यहाँ नहीं लगता
पर कर्फ्यू जैसा लग जाता है
रामू का वह जिगरी जुम्मन
मिलने से अब कतराता है
चौराहों पर यहाँ-वहाँ
रिश्तों पर कर्फ्यू लगा हुआ है
इनकी नज़रों से बच जाना
यही प्रार्थना यही दुआ है
तेरे पास चाहती आना
पर न छूटती है यह मिटटी
आगे कुछ भी लिखा न जाये
जल्दी से तुम देना चिट्ठी
- अरुण आदित्य
२९ सितंबर २०१४ |