तीव्र काँटे
और पीताभ पुष्प
माँ इन्हें अर्पण किया करती
अपने कान्हा को
और वे खड़े रहते बस बाँसुरी हाथ में लिए
इनका खिलना याने
आँगन में कार्तिक का आना
माँ की हथेलियों में
ये बस कान्हा का मुकुट बनने को
आते थे
माँ कहती थी
ये स्वर्ण पुष्प हैं
एक दिन माँ चली गयी
वज्रा का पौधा
मेरे साथ पहले
लखनऊ गया
फिर अहमदाबाद
कार्तिक अब भी आता है
वज्रा अब भी खिलती है
माँ की हथेलियों के बिना
बस वह एक पीत वर्णी पुष्प है
जो कभी सोना नहीं होता
उस स्पर्श को जीवन आज भी खोजता है
सामर्थ्य थी जिसमें काँटों को भी स्वर्ण कर सकने की।
- परमेश्वर फुँकवाल
२९ सितंबर २०१४ |