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माँ,
तुझसे दूर,
शहर में यहाँ,
मैं जब भी खाने पर बैठता हूँ,
और,
बासी रोटी की पोटली खोलता हूँ,
तो मुझे एक बात याद आती है,
रोटी तेरी तस्वीर नज़र आती है,
वैसी ही
सिकुड़ी, सहमी, सिमटी सी,
किसी गरीब की जमा –पूँजी सी।
माँ!
तू आइना नहीं देखती,
इसलिए नहीं जानती,
ना जाने कब,
ना जाने कहाँ,
भूख,
बन कर छा गई,
तेरे चेहरे पर झुर्रियाँ।
माँ!
यहाँ शहर के लोग, बहुत पढ़े –लिखे होते हैं,
मगर ये तेरे चेहरे की झुर्रियाँ नहीं पढ़ सकते,
झुर्रियों का दर्द,
झुर्रियों की बेबसी नहीं समझ सकते,
क्यों कि वो मजदूर नहीं होते।
माँ!
तुझे पता है,
गरीबी के कोख जने बच्चे को क्या मिलता है,
उम्मीदों की तरह चंद रोटियाँ बासी,
धूप भरी थकन, धूल भरी उदासी,
फूटपाथ की नींद, बम्बे का पानी,
“सूखा’ बचपन, बलगम भरी जवानी।
माँ!
तू अपने को दोष मत दे और ना उदास हो,
क्यों कि पता है मुझे,
गरीबी के कोख जने बच्चे को यही मिलता है,
माँ!
तू मुझे अब गाँव ना बुलाया कर,
क्योंकि, शहर आज भी साहूकार है,
क़र्ज़ की तरह बढ़ता हुआ
जो रोटी देता है,
भले ब्याज में,
लहू पीता है,
हड्डियाँ भी चबा ही जाएगा,
मगर गाँव,
गाँव तो अब भी बँधुआ मजदूर है,
भूखा, बेबस, सिमटा हुआ,
माँ!
शहर में रोटी तो मिलती है,
गाँव में तो अब भी भूख उगती है,
और चेहरे पर झुर्रियाँ मिलती हैं,
झुर्रियाँ वो जो शहर के पढ़े लिखे लोग नहीं पढ़ सकते,
झुर्रिओं का दर्द, झुर्रिओं की बेबसी नहीं समझ सकते,
क्योंकि वो मजदूर नही होते, मजदूर नही होते।
- नय्यर उमर अंसारी
२९ सितंबर २०१४ |