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नवदुर्गा |
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चन्द्रप्रभा सम वर्ण अलौकिक,
रूप अतुल्य सुरंजनकारी।
नाम रटे जग शैलपुत्री गिरि, राज हिमालय की सुकुमारी।
पंकज वाम भुजा कर दाहिनि, सोहत तेज त्रिशूल सँहारी।
शम्भु प्रिया जग की जननी तुम, हो करती वृष नंदि सवारी।
जन्म लिया पहला तब भी सति, शंकर की बनि पत्नी दुलारी।
गावत है गुन तोरि विरंचि, नरायण संग सदा त्रिपुरारी।
कानन जीव सदा रहते सुख, से रहती अनुकम्पा तुम्हारी।
सौरभ संकट में जब हो तुम, ही करुणा करना महतारी ।
(प्रथम रूप : माँ शैलपुत्री)
दुष्कर ताप लगी करने तपचारिणि शंकर को वरने को।
शाक अहार किया जल के बिन, भी रह ली न डरी मरने को।
शीश नवावत है नर जो पद, मात तपश्विनी की धरने को।
संयम बुद्धि बढ़ावत माँ चलि, आवत व्याधि सभी हरने को
(द्वितीय रूप : माँ ब्रह्मचारिणी)
घंट अकार विराजत है शशि, भाल त्रिलोक करे उजियारी।
अद्भुत रूप सुवर्ण की भाँति, बलिष्ठ भयानक बाघ सवारी।
दस्सभुजा शर-चाप, त्रिशूल, गदा, असि आदि अनेककटारी।
राक्षस को यम लोक पठावत, भक्तन की करती रखवारी ।
ध्यावत जो जननी तुमको नव, रात्रि तृतीय दिवानर-नारी।
बुद्धि विवेक चिरायु मिले दुख, दूर रहे बन जाएँ सुखारी।
काज अमंगल हो न कभी जब, माँ सँग होवत मंगलकारी।
सौरभ स्वच्छ रखो मन को यह, मात त्रिनेत्रि सदा हितकारी।।
(तृतीय रूप : माँ चन्द्रघण्टा)
सृष्टि नहीं जब थी तब था चहु ओर अमावस-सा तम छाया।
माँ प्रगटी फिर दिव्य प्रकाश लिये अतिमद्धमसे मुसकाया।
चन्द्र दिवाकर नौ ग्रह को गढ़ के सगरे ब्रह्मांड बनाया।
नाम उसी दिन से तुमरो जननी जग की कुषमांड धराया।।
(चतुर्थ रूप : माँ कुष्माण्डा)
पद्म विराजत वाहन शेर चतुर्भुज दो कर नीरज भाता।
श्वेत शरीर शिखा-नख से रमणीय छबी मन को हरषाता।
राखत हो निज गोद तले तुम स्कन्द कुमार छुपाकर माता।
पूजन पंचम को करता भक्त जो मनवाँछित वो फल पाता।।
(पंचम् रूप : माँ स्कन्ध माता)
सिंह सवार सुसज्जित रूप मनोहर आनन की सुघराई।
तात ऋषी कति आयन हैं कात्यायनी हो इस हेतु कहाई।
चार भुजा असि फूल सुवस्तिक आशिष की मुदरा धरि माई।
दानव पापिन को रण में यमलोक सँहार सदैव पठाई।
वैदिक काल हुआ महिषासुर राक्षस था खल जो अन्यायी।
नाशन हेतु उसे ऋषियों सब के हर काज सँवारन आयी।
ध्यान छठे नवरात दिवा कात्यायिनी की अति है फलदायी।
रोग भगावत कष्ट निवारत होत सहाई बड़ी सुखदायी।
(षष्टम् रूप : माँ कात्यायनी)
राक्षसहीन धरा करने जग में अवतार लिया महतारी।
यद्यपि रूप भयानक है फिर भी यह है अति मंगलकारी।
सप्त दिवा नवरातर के करती दुनिया यह पूजन सारी।
मुक्त करे सगरे भय से हरती निज भक्तन का दुख भारी।।
रूप भयानक रैन अमावस के जितना दिखता तन काला।
केस घने बिखरे गर राक्षस मुण्डन की पहनी तुममाला।
चार भुजा दुई अस्त्र तथा दुई अभ्य मुद्रा वरआशिष वाला।
गर्दभ आरुढ़ त्रीनयनी मुख घ्राण निरन्तर आवत ज्वाला।
(सप्तम् रूप : माँ कालरात्रि)
दुग्ध सरेख शरीर शशांक लजावत मातु की उज्जवलताई।
हाथ त्रिशूल लिये डमरू वर की मुदरा अति दिव्य दिखाई।
ताप कठोर किया तब जा शिवशंकर की प्रिय तीय कहाई।
आठ बरीस मनीषि तथा कवि जीवन की कुल आयु बताई।
गौरी महा उर में बसती जिनके उनके सब दु:ख कटेहैं।
दोष निवारण होत उपस्थित जीवन के सब पाप हटे हैं।
उन्नति होत निरन्तर मान बढ़े यश वैभव नाहिं घटे हैं।
पूरित माँग करे नवरातर अष्टम भक्त जु नाम रटे हैं।
(अष्टम् रूप : माँ महागौरी)
केहरि वाहन नीरज आसन मोहनि रूप हिया हरषाता।
शंख सरोज गदा अरु चक्र अतीव अलौकिकता दर्शाता।
साधक जो नवरातर के नववें दिन लीन हो ध्यान लगाता।
आठहुँ सिद्धि प्रदान करें उसको खुस हो करके यह माता।
- सुरेश कुमार सौरभ
२९ सितंबर २०१४ |
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