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मोटा काँच सुनहरा चश्मा,
मानस-पोथी माता जी।
पीत शिखा सी रहीं दमकती, जगती-सोतीं माताजी।।
पापा जी की याद दिलाता, है अखबार बिना नागा।
चश्मा लेकर रोज बाँचना, ख़बरें सुनतीं माताजी।।
बूढ़ा तन लेकिन जवान मन, नयी उमंगें ले हँसना।
नाती-पोतों संग हुलसते, थम-चल पापा-माताजी।।
इनकी दम से उनमें दम थी, उनकी दम से इनमें दम।
काया-छाया इक-दूजे की, थे-पापाजी-माताजी।।
माँ का जाना-मूक देखते, टूट गए थे पापाजी।
कहते: 'मुझे न ले जाती क्यों, संग तुम्हारी माताजी।।'
चित्र देखते रोज एकटक, बिना कहे क्या-क्या कहते।
रहकर साथ न संग थे पापा, बिछुड़ साथ थीं माताजी।।
यादों की दे गए धरोहर, साँस-साँस में है जिंदा।
हम भाई-बहनों में जिंदा, हैं पापाजी-माताजी।।
- संजीव सलिल
२९ सितंबर २०१४ |