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यह दर्पण क्यों न मान रहा
मुझे देख के
माँ ही जान रहा।
तुझ जैसी हूँ पर तू तो नहीं
प्रतिछाया हूँ पर, हूँ तो नहीं
यह भेद तो कोई समझे ना
दर्पण भी
नादान रहा।
कल बगिया में जो डार हिली
क्या तू ही मुझको आन मिली
यह तुलसी बिरवा हुलस–निरख
तुझको ही
पहचान रहा।
यह आँख मिचौनी ठीक रही
उस पार तू हंसती दीख रही
मैं कब तुझ जैसी हो गई
मुझे कुछ भी ना
अनुमान रहा।
शशि पाधा
३० सितंबर २०१३ |