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माँ के हाथों की
कटहल की सब्जी
जैसे बारिश हो
धूप में हल्की
मेरे सर पे रखे जो
वो आँचल
भीड़ में हाथ थाम लेते
पल
मेरे आने पे
वो बनाना कढ़ी
छौंकना साग और
तलना बड़ी
एक लौकी से सब बना लेना
सब्जी और
बर्फी भी जमा देना
उसके गुस्से में
प्यार का था मज़ा
कैसी बच्चों सी देती थी
वो सज़ा
उसका कहना "पापा को आने दे!"
बाद में हँस के कहना
"जाने दे!"
याद आते हैं
उसके हाथ सख्त
तेल मलना
वो परीक्षा के वक्त
वो ही
कितने नरम हो जाते थे
ज़ख्म धोते,
मरहम लगाते थे
उसका ये पूछना
"अच्छी तो है?"
कहना हर बात पे "बच्ची तो है!"
सुना होती है सबकी माँ
होती है ऐसी
धरती पर खुदा जैसी !
शार्दूला झा नौगजा
३० सितंबर २०१३ |