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कभी - कभी खुद से प्रश्न
करता हूँ, कैसे हो ?
आत्म रक्षा के लिए जो कठिन है और जो क्रुद्ध मशालों की
शिखाएं हैं -
वे कभी लकीरों के फाँकों से भरती हुई रौशनी थी
पर काफी साफ नहीं थी,
इस बात के लिए किसने किया था रोना - धोना ?
मस्तिष्क के भीतर शैशव से ही अहरह शब्दों और विभिन्न तरह
की
छायाओं का ---- अपने ही अर्थों के साथ,
सर - सर की आवाज़ करते आवाजाही |
और ममत्व के जहर की वेदना कौन जानता था,
होता है यह कितना वेदनामय ?
जलवायु, अग्नि और अन्धकार को साक्षी रख
इस अबोध शिशु की जीभ पर
जिसने पहली बार छुआया था
अम्ल व मधु
वही है माया - ममता से भरी मेरी माँ
वही है ईश्वरीय।
-रवीन्द्र गुहा
(मूल बांग्ला से हिंदी अनुवाद- मीता दास)
३० सितंबर २०१३ |