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रहता जननी का सदा, जिसके सिर
पर हाथ।
उसके चरणों में झुके, सुख सम्मति का माथ।
सुख सम्मति का माथ, भाग्य बनता अनुगामी।
खुशियाँ करें किलोल, कर्म भी भरता हामी।
कह 'मिस्टर कविराय', स्नेह का निर्झर बहता।
कहलाता नर श्रेष्ठ, अमिट यश लेखा रहता।
माँ की ममता कौमुदी, ऋजु निष्कंटक राह।
शीतल छाया नीम की, उत्कट जीवन चाह।
उत्कट जीवन चाह, सुभाषित मंगल कविता।
भीनी भीनी गंध, मन्त्र की पावन शुचिता।
कह 'मिस्टर कविराय', भोर के मस्तक टाँकी।
ऊषा की नव किरन, सरिस है ममता माँ की।
पुडिया जादू की कोई, निश्चित माँ के पास।
जो इतने जंजाल में, होती नहीं उदास।
होती नहीं उदास, भोर ही नाचे बढ़नी।
बर्तन करते शोर, उसे सब लिपियाँ पढ़नी।
कह 'मिस्टर कविराय', टिफिन को रोती गुड़िया।
उधर जल रही छौंक, अजब जादू की पुड़िया।
परिवर्तन इस सृष्टि में, जीवन का आधार।
माँ तेरी नव भूमिका, स्वागत को तैयार।
स्वागत को तैयार, बहू भी पाये मौका।
करे वंश का नाम, खटे न चूल्हा चौका।
कह 'मिस्टर कविराय' परस्पर लड़ें न बर्तन।
बेटी को भी दूध-भात, अब दे परिवर्तन।
रामशंकर वर्मा
३० सितंबर २०१३ |