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माँ! शब्द दो!

 

 

 

माँ!
माँ! मुझे याद है।
वो बचपन के हिस्से, वो सावन के झूले,
वो वर्षा के किस्से, वो नदी में नहाना,
वो तेरा, मेरी चोटियाँ बनाना।

माँ!
तुम्हीं हो जो जन्म-दिन पर
घुटनों तक भरे पानी से निकल कर
भीगती हुई मुझे बधाई देने आती थी,
और अपने हाथों से
प्यार-पगी
मिठाइयाँ खिलाती थी।

माँ!
तुम्हीं हो जो
गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ सिखाती थी,
कर्त्तव्य-पथ पर अग्रसर होने का
मार्ग दिखाती थी।
मेरे साथ
दु:ख में घबराती थी,
फिर मैं हँसूँ तो
तुम भी हँ
सने लग जाती थी।

माँ!
जब तुमने
मेरी पहली कमाई को
झोली में सँजोया था,
माथे से लगाकर मंदिर में सहेजा था,
उसी दिन मुझमें संस्कारों का
एक और बीज बोया था।

माँ!
जीवन भर मैं तुम्हारे स्नेरह की ऋणी रहूँगी,
क्योंकि
तुम मेरा अस्तित्व हो,
मायका हो, राखी हो, जीवन की झाँकी हो
होली हो, दिवाली हो, सखी हो, आली हो।

माँ!
तुम माँ हो ।

-रजनी मोरवाल
३० सितंबर २०१३

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