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जन्मा-अजन्मा के भेद से परे
एक सत्य- माँ!
तुम ही तो हो
जिसने गढ़ी
ये देह, भाव, विचार,
शब्द!
रूप-अरूप-कुरूप में
झूलती देह
गल ही जाएगी
भाव, विचार
थिर ही जायेंगे
अभिव्यक्ति को तरसते
स्वप्न-चित्र
तिरोहित हो जायेंगे
फिर भी चाहना के
उथले-छिछले जल में
डूबते-उतराते
बहक ही जाते हैं
उस राह पर
जिसके दोनों तरफ हैं ठूँठ
बरसात और धूप में
मुँह बिराते
यह राह खो जाती है
दूर क्षितिज में
जहाँ से रोज़
उगता और अस्त होता है
सूर्य
इस राह से परे
पगडंडियों के छोर पर
मंदिर की घंटियाँ
निशब्द हैं
माँ! शब्द दो!
अर्थ दो!
- बृजेश नीरज
३० सितंबर २०१३ |