माँ रुकी नहीं
माँ चलती रहीं
नंगे पाँव
काँटों भरी राह पर
रुक कर निकालतीं
पैरों के काँटे
और फिर बढ़ा देतीं एक कदम
उस ओर जहाँ थे
वर्जनाओं के जंगल
जानवरों से जूझ कर
माँ ने पार किये
जाने कितने बियाबान
टूटन के द्वार तक न
जाकर लौटी वे
कई कई बार
मगर टूटी नहीं
रुकी नहीं
बस बन गईं तस्वीर
तस्वीर बनकर भी
ठहरी कहाँ
वे तो चल रहीं है
मेरे साथ
लगातार लगातार
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माँ सुनाया करती थीं कहानियाँ
राजा-रानी
सोने की गुड़िया
चाँद और बुढ़िया
फुदकती चिड़िया
राजा - रानी
कौआ हंकनी
जाने कितनी कितनी
कहानियों में डूबी
उन आँखों में
उभर उभर आतीं थीं
कई अनकही कहानियाँ
अब वे जब
बन गई हैं खुद
एक कहानी
बहुत याद आती हैं वे
बहुत याद आती है
उनकी वो
अनकही कहानी
उर्मिला शुक्ला
१५ अक्तूबर २०१२ |