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माँ (तीन मुक्तक)
इस रक्त के संचार पे अधिकार तुम्हारा है
श्वाँसो के हरेक तार पे उपकार तुम्हारा है
आँखों में चमकते हैं मुस्कान के जो मोती
कुछ और नहीं माँ वो बस प्यार तुम्हारा है
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बिन बोले बिन उपदेश दिए, कर्मो की गीता समझाई
तुमने अपनी दिनचर्या से, पल-पल की कीमत बतलाई
जब-रुके-कदम-मन-विकल-हुआ-श्रीहत-साहस-का-स्वर्ण-हुआ
माथे पर उत्प्रेरित चुम्बन करती माँ मन में मुस्काई
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मेरी आँखों की पीर चुरा तुम हँसी वहाँ भर जाती हो
तुम परी हो मेरे सपनों की हर मुश्किल हल कर जाती हो
तुम माँ हो या जादूगरनी, विस्मित हूँ, दुर्गम दूरी से
कैसे मेरे अनबोले ज़ख्मों पर मरहम धर जाती हो
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--सीमा अग्रवाल
१५ अक्तूबर २०१२
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