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माँ
भावनाएँ जब बह निकलती,
तोड़ कर हर बाँध को,
मौन...
स्वर बन स्फुटित करता
अनकहे उदगार को
शिशु की ऊँगली पकड़कर
जो बचाती चोट से
देखकर पीड़ा उसीकी
व्यथित होती क्षोभ से
डैनों में हरदम संजोकर
उम्र भर पाला जिसे
भेजकर परदेस
अश्रु बह चले सन्देश ले
नीड़ अपना जा सजाना
प्रेम और विश्वास पर
जो अडिग, अक्षेय होकर
झेले झंजावात को...
सच तो यह है,
आह भी हलकी सी उठती है जहाँ ..
माँ का दिल ढाल बनकर ...
हो खड़ा जाता वहाँ !
यह सभी संकेत माँ के
प्रेम का प्रतिरूप हैं
जिसकी महिमा ...जिसकी शक्ति से
सभी अभिभूत हैं।
--सरस दरबारी
१५ अक्तूबर २०१२ |