मेरी माँ
उबलती धूप माथा चूम मेरा लौट जाती है
सुबह ही रोज सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है
कहीं भी मैं गया पर आजतक भूखा नहीं सोया
मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है
पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर
अभी भी गाँव में हर साल माँ स्वेटर बनाती है
नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में
मेरी माँ रोज चौबारे में एक दीया जलाती है
सदा ताजी हवा आके भरा करती है मेरा घर
नया टीका मेरी माँ रोज पीपल को लगाती है
--धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन
१५ अक्तूबर २०१२
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