कोहरे की उमड़ी नदी
डूब गए
शहर और गाँव
मंद हुआ
सूरज का ताप
झीलों से
उड़ रही है भाप
घुल रही हवाओं में बर्फ़
सर्दी भी जमा रही पाँव
मौसम का
सम्मोहक रूप
लुकाछुपी
खेल रही धूप
अलसायी लग रही धरा
पंछी भी ढूँढ रहे ठाँव
कौन है जो
रुई सी धुने
झीनी सी
चादर बुने
कोहरा है माया का जाल
कभी धूप और कभी छाँव
- शिवजी
श्रीवास्तव
१ दिसंबर २०२१