अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

     

           कुहरे में ठाँव

जाड़ा पसार रहा धरती पर पाँव
पीपल के पत्तों से
काँप रहे गाँव

रातें खड़ीं लिये कर में कमान
छोड़ रही शीत लहर चुपके से बाण
घुटनों से जकड़न खेल रही खेल
पाला निकाल रहा फसलों का तेल
लगने को आतुर है
जीवन का दाँव

जाड़े में सूरज का बदला स्वरूप
सेंक रहा अपनी ही किरणों की धूप
ठिठुरी -सी नदी लगे ठिठुरे पहाड़
सूरज को देख मारे जाड़ा दहाड़
ढूँढ रहा छिपने को
कुहरे में ठाँव

छेड़ रही पछुआ धरती पर तान
दाँत सभी नाच रहे बौराये प्राण
आँखों में झाँक रहा हौले से कौन
टूट रहा जाड़े में संयम का मौन
सजनी-सी धूप लगे
सौतन-सी छाँव

जाड़ा दुशासन-सा खींच रहा चीर
छलका है कुटियों की आँखों में नीर
धरती की छाती पर कौन दले मूँग
कलरव को लगता है साँप गया सूँघ
बोले मुँडेर पर
कागा न काँव

- मनोज जैन मधुर
१ दिसंबर २०२१
     

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter