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        जाने क्यों

जाने क्यों -
क्या ढूँढने उतरते हो
रात के अंधेरे में ओ कोहरे
चुपचाप
इस धरती की छाती पर
फिर अक्सर थक कर सो जाते हो
पत्तियों के ठिठुरते गात पर
और सहमी, पीली पड़ गई
तिनके की नोक पर-
गाड़ी के शीशे से
न जाने कहाँ झाँकने की कोशिश में
चिपक जाते हो तुम
अक्सर....!
सुबह की थाप तुम्हें सुनाई नहीं देती
उद्दंड बालक की तरह
धरती का बिस्तर पकड़कर
मुँह फेरकर सोए रहते हो
जब तक कि फुटपाथ पर
रातभर करवटें बदलता हुआ मजदूर
अपनी कुल्हाड़ी, फावड़ा चलाना शुरू नहीं करता
ढाबे के चौखट पर
पहली कलि के खिलने की तरह
पाँच साल का छोटू
उठकर बैठ नहीं जाता
जब तक सड़क किनारे
पानी भरते हुए
वह
गाड़ी के शीशे से तुम्हें हटाकर
अपना नाम लिखने की कोशिश नहीं करता-
मगर फिर भी
अक्सर
वह सर्वशक्तिमान शिशु
हार मान ही जाता है
और तुम
रात के अंधेरे से निकलकर
दिन के उजाले पर
नक़ाब बन कर
इठलाते रहते हो...
जाने क्यों?

- शरदिन्दु मुखर्जी

१ दिसंबर २०२१
     

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