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        कोहरा और मौसम

शीत से काँपती, सहमी दीवारों पर
ओस की नन्ही नन्ही बूँदें
चितकबरी सी
जैसे खेलते लुकाछिपी का खेल
कुछ शरारती बच्चे

घने कोहरे में डूबी हुई
झड़ रही है नीम की पत्तियाँ
सर-सर... मर-मर...
धुंध का सन्नाटा सिमटता है
और बदलते मौसम के गीत गाती धरती
करती है स्वागत नए सूरज का

दूर तक फैला हुआ ये कोहरा मन का
पिघल रहा है
और भावनाओं का तपता सूरज
उतर रहा धरती के हरित अंचल पर
धीरे... धीरे... धीरे...
पिघलती, बिखरती धूप के मृगछौने
बतिया रहे हैं जहाँ-तहाँ
और थरथराती शीत गुम हो रही है
धरती कुछ और सँवरती
गुनगुनाती-सी तप उठती है
युगों से वहीं खड़ी
प्रिय सूरज के स्वागत में
युगों से युगों तक

- पद्मा मिश्रा

१ दिसंबर २०२१
     

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