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        प्रात धुंध

प्रात का वह प्रहर प्रथम
आ रही है धुंध मुझ तक
श्वेत चादर ओढ़
शत सहस्त्र हंस सी पाँखे पसार
श्वेत मृदु
बढ़ती हुई निःशब्द
ढँकती पादपों महलों
और झोपड़ों को इकसार
आवृत करती सारा दृश्य-सा संसार का
एक शीतल स्पर्श नयनों का, करों का
और अवश सी दृष्टि मेरी
ढूँढ रही प्रात प्रकृति का
अनुपम मधु विस्तार
धुंध के सागर के तट से
जा नहीं पाती किसी विध पार
एक किरण रोशनी की सुनहली
खोल देगी बाह्य अन्तर के कपाट
और सब स्पष्ट होगा
मिटेगी धुंध
वाह्य की अन्तस की
मिटेगा दुविधा का संसार

- आशा सहाय
१ दिसंबर २०२१
     

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