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स्मृतियों
के घन |
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रौशनी और रंगों के
काँधें से उतर कर
पहाड़, नदी, जंगल
खेत-खलिहानों से होते हुए
चली आयी फिर ठंड गुलाबी
लेकर सुगंध शरद ऋतु वाली
जो जाने-अनजाने साथ ले आयी है यादें तुम्हारी भी
इतरा रही है,
लुका -छिपी खेलती धूप
इन दिनों कुछ और भी ज़्यादा
ठीक वैसे ही जैसे तुम इतरा जाते थे
मेरा बुना नया स्वेटर पहन कर
हवाओं से खोने लगी है नमी
सहराती ठंड के महीन रेशों से
सुबह-शाम बुनने लगी हैं
चादरें कोहरे की
बगीचे में फैले रंग और सुगंध के नज़ारों को
अपनी आँखों में भरते हुए
जब देखती हूँ दूब के माथे पर जड़े
ओस के स्निग्ध चुम्बन को
तो खुद को, थोड़ा और
तुम्हारी दी पशमीना शॉल के पाश में कस लेती हूँ
दूर-दूर तक वादियों में फैली
धुँध और कोहरे से लिपटी शाम
और चाय के घूँट भरते हुए
टिक गयीं हैं स्मृतियाँ
तुम्हारे संग गुज़ारी तमाम शामों पर
जैसे टिके हुए हैं
तमाम सफेद गुच्छे बादलों के
कतारबद्ध चिनारों पर
- आभा खरे
१ दिसंबर २०२१ |
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